पॉलीग्राफ़िक टेस्ट झूठ पकड़ने वाली तकनीक है जिसमें आदमी की बातचीत के कई ग्राफ़ एक साथ बनते हैं और इससे हर संभावित झूठ को पकड़ने की कोशिश की जाती है।
दूसरा तरीक़ा होता है ट्रुथ सीरम या नार्को टेस्ट का इस्तेमाल। इसमें उस आदमी को एक दवा (जैसे सोडियम पेंटाथॉल) दी जाती है। इससे अभियुक्त बेहोशी की हालत में बात करता है और सच बातें उगल देता है।
दूसरा तरीक़ा होता है ट्रुथ सीरम या नार्को टेस्ट का इस्तेमाल। इसमें उस आदमी को एक दवा (जैसे सोडियम पेंटाथॉल) दी जाती है। इससे अभियुक्त बेहोशी की हालत में बात करता है और सच बातें उगल देता है।
पॉलीग्राफ़िक टेस्ट को विशेषज्ञ करते हैं और वही नतीजों का विश्लेषण करते हैं। लेकिन ये कैसे पता चलता है कि जिस इंसान की जांच हो रही है वो सच बोल रहा है या झूठ?
असल में जिस इंसान पर टेस्ट होना है उसकी धड़कन, सांस और रक्तचाप के उतार चढ़ाव को ग्राफ़ के रूप में दर्ज किया जाता है। शुरू में नाम, उम्र और पता पूछा जाता है और इसके बाद अचानक उस विशेष दिन की घटना के बारे में पूछ लिया जाता है। इस अचानक सवाल से उस इंसान पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है और ग्राफ़ में बदलाव दिखता है। अगर बदलाव नहीं आता है तो इसका मतलब है कि वो सच बोल रहा है। इस तरह से उस व्यक्ति से 11 सवाल पूछे जाते हैं जिनमें चार या पांच उस घटना से संबंधित होते हैं।
जिन जिन सवालों पर ग्राफ़ में बदलाव आता है, उसका विशेषज्ञ विश्लेषण करते हैं।लेकिन अगर इसमें विशेषज्ञता नहीं है तो इससे ग़लत नतीजे भी निकल सकते हैं। इसीलिए अनुभवी विशेषज्ञों द्वारा ही इसे कराया जाना चाहिए। अगर किसी खास घटना के बारे में कोई सबूत है और पॉलीग्राफ़ी टेस्ट में झूठ बोला गया है तो वहीं उसका झूठ पकड़ा जाता है। और इसे कोर्ट में मान भी लिया जाता है।
अधिक मानसिक दृढ़ता वाले व्यक्तियों पर ये टेस्ट फेल भी हो सकता है इसलिए इसकी 100% वैद्यता की पुष्टि नहीं की जा सकती है। क्योंकि मनुष्य की मानसिक क्षमता अधभुत होती है और वह परिस्थितियों के हिसाब से इसमें अनपेक्षित बदलाव भी कर सकता है, वह इस प्रकार की परिस्थितियों से गुजरने के लिए पहले से भी तैयार हो सकता है या फिर मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण भी ले सकता है। ऐसे में विचारणीय बिंदु यह है कि आजकल आदतन अपराधी और आतंकवादी को इससे गुजरने का और बिना पकड़े जाये सफाई से झूठ बोलकर चीजो में उलझाने वाली नई दिशाओं को पैदा करने का प्रशिक्षण अवश्य दिया जाता होगा, जिससे पूछताछ एजेंसी को गुमराह किया जा सके। इसलिए इस सिद्धांत में मनोवैज्ञानिकता और विज्ञान का सामंजस्य बिठाते हुए नई तकनिकी विकसित करने की आश्यकता हैं।
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